शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2009

`जानने का हक´ अब एफएम पर

आरटीआई कैसे फाइल होता है और इसका क्या प्रोसेस है? क्या आरटीआई से बैंक के लोन के बारे में जान सकते हैं? क्या प्राईवेट संस्थान में भी आरटीआई फाइल किया जा सकता है? क्या सूचना लेने के लिए फॉर्म भरना पड़ता है? क्या सरकारी कर्मचारी भी सूचना मांग सकते हैं? मुझे डीएसएसएसबी ने गलत सूचना दी है, इसकी शिकायत कहां की जाएगी? क्या स्टूडेंट किसी मसले पर इसका इस्तेमाल कर सकते हैं? सूचना के अधिकार से सम्बंधित इस तरह के सैकड़ों सवालों के जवाब ऑल इंडिया रेडियो के एफएम रैनबो पर प्रसारित होने वाले प्रोग्राम `जानने का हक´ के माध्यम से लोगों को मिल रहे हैं। श्रोताओं के सवालों से अंदाजा लगाया जा सकता है कि लोगों को सूचना के अधिकार के बारे में कितनी जानकारी है? इस कानून के प्रचार-प्रसार का जो काम सरकार को करना चाहिए था, वह गैर सरकारी संगठन और मीडिया कर रहा है। अब तक टेलीविजन और अखबारों के माध्यमों से ही इस कानून का ज्यादातर प्रचार-प्रसार किया गया है। लेकिन अब रेडियो के माध्यम से इसे आम लोगों तक पहुंचाने के लिए एक अनूठा प्रयोग शुरु किया गया है, और इसका असर भी अब खूब देखा जा रहा है। चाहे छत्तीसगढ़ हो या बिहार का बाढ़ ग्रस्त इलाका, पूर्वोत्तर से नागालैंड हो या उत्तर में लद्दाख, मध्य प्रदेश के आदिवासी अंचल से हो या गोवा का शहरी इलाका, इस कार्यक्रम को बड़ी गंभीरता से सुना और सराहा जा रहा है। इसका सबूत इन इलाकों से कार्यक्रम के प्रसारण के दौरान या बाद में आने वाले प्रतिक्रियाओं को देखकर मिलता है।
कार्यक्रम के प्रोड्यूसर नीरज कुमार बतातें हैं `रेडियो एक ऐसा माध्यम है जिसकी पहुंच देश के कोने-कोने में है, इसलिए सूचना के अधिकार के प्रचार-प्रसार के लिए रेडियो को माध्यम बनाकर लोगों को इसके बारे में बताना बहुत उपयोगी हो सकता है, यही सोचकर कार्यक्रम की शुरूआत की गई। हर एपिसोड के बाद सैकड़ों फोन कॉल्स और मैसेज हेल्पलाइन पर आ रहे हैं, जिससे पता चलता है कि लोग इस कानून के बारे में जानने के लिए बड़े इच्छुक हैं। खासकर छात्रों की इस कानून में बहुत दिलचस्पी देखी जा रही है। इसके अलावा आरटीआई के बारे में ज्यादा जानकारी लेने के लिए और अपने मामले में इसका प्रयोग कैसे करे इसे जानने के लिए लोग ईमेल भी कर रहे हैं।´
कार्यक्रम की प्रस्तुतकर्ता प्रियंका त्यागी का कहना है `यह बहुत सूचनाप्रद कार्यक्रम है, इस कार्यक्रम मे हम लोगो को मनोरंजन के साथ साथ उनके अधिकार के बारे में गहराई से बताते है।´ कार्यक्रम के दूसरे प्रस्तोता मनीष का कहना है `सूचना का अधिकार एक ऐसा कानून है जो लोगों के जीने का अंदाज बदल सकता है और हम इस कार्यक्रम में ये कोशिश करते हैं कि लोगों को आरटीआई के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानकारी दे सकें जिससे उनके जीने का अंदाज बदल जाए।´

कानून का माखौल उड़ाता आयोग

सुशील राघव
मैं जनपद गाजियाबाद के कड़कड़ माडल गांव का निवासी हूं। जब मुझे सूचना के अधिकार के बारे में मालूम पड़ा तो मैंने सबसे पहले अपनी जमीन से सम्बंधित प्रश्नों का एक आवेदन तैयार किया। उस आवेदन को लेकर मैं 20 फरवरी 2007 को उत्तर प्रदेश राज्य औद्योगिक विकास निगम लिमिटेड(यूपीएसआईडीसी) के क्षेत्रीय कार्यालय पहुंच गया। सबसे पहले मैंने वहां के जन सूचना अधिकारी के बारे में पूछताछ की। पता चलने पर मैंने उनसे आवेदन जमा करने का आग्रह किया। उन्होंने मेरा आवेदन देखने के बाद बहाने बनाना शुरू कर दिया। मैंने थोड़ा सख्त रुख अपनाते हुए आवेदन स्वीकार करने के लिए जोर दिया तो अधिकारी ने कहा कि आपका आवेदन तभी जमा किया जाएगा, जब आवेदन पर आप क्षेत्रीय कार्यालय के अधिकारी के हस्ताक्षर करा लाएंगे। इसके बाद मैं तुरंत क्षेत्रीय अधिकारी सुरेश कुमार के पास पहुंच गया। उन्होंने मेरे आवेदन पर हस्ताक्षर कर मुझे आवेदन जमा करने के लिए जन सूचना अधिकारी के पास भेज दिया। जब मैं उनकी सीट पर पहुंचा तो जन सूचना अधिकारी वहां से रफूचक्कर हो चुके थे। मैंने वहां बैठे अन्य कर्मचारियों से जब उनकी बाबत पूछा तो उन्होंने कहा कि अभी आते ही होंगे। मैं करीब एक घंटे तक उनका इंतजार करता रहा मगर वे नहीं आए और मैं घर लौट आया। अगले दिन मैं सुबह की जन सूचना अधिकारी के पास पहुंच गया। जब मैंने आवेदन उनके हाथ में थमा कर दस रुपये फीस जमा करने के लिए दिए तो उन्होंने मुझे चैक जमा कराने को कहा। इस पर मैंने उनसे कहा कि कानूनन कैश जमा किया जा सकता है। इस पर वे फ़िर बहाना बनाकर चले गए और मैं बिना आवेदन जमा किए वापस लौट आया। इसलिए मैंने कुछ दिन बाद राज्य सूचना आयोग में शिकायत कर दी। 7 जून 2007 को आयोग में मेरी पहली सुनवाई लगी। सूचना आयुक्त मेजर संजय यादव ने यहां पांच सुनवाइयों तक भी जन सूचना अधिकारी पेश नहीं हुए। श्री यादव ने न तो पेनल्टी लगाई और न ही ऑर्डर किया। इसके बाद मेरा मामला वीरेन्द्र सक्सेना के कोर्ट में चला गया। वीरेन्द्र सक्सेना ने धरा 20(१) का नोटिस किया तो यूपीएसआईडीसी का जन सूचना अधिकारी उपस्थित हुआ। आयुक्त ने न तो अधिकारी पर पेनल्टी लगाई और न ही मुझे सूचनाएं दिलाईं। मुझे जो सूचनाएं दी गईं वे अपूर्ण और गलत थीं। इसलिए अगली तारीख पर आयुक्त से सही सूचनाएं दिलाने के लिए कहा तो वे मुझ पर दवाब डालने लगे। इस पर मैंने उनके मुंह पर ही कह दिया कि आप यूपीएसआईडीसी का पक्ष ले रहे हैं। इस बात पर मेरी उनसे कहा सुनी हो गई। मैंने एक प्रार्थना पत्र मुख्य सूचना आयुक्त को लिखकर अपना केस पुन: मेजर संजय यादव के कोर्ट में लगाए जाने की मांग की मगर ऐसा नहीं किया गया। इसके बाद जब एक दिन मैं अगली सुनवाई पर पहुंचा तो मेरा केस सुनील अवस्थी के कोर्ट में पहुंच गया। जब सुनील अवस्थी से मैंने कहा कि जो सूचनाएं मुझे दी जा रही हैं वे गलत हैं तो उन्होंने कहा कि नहीं ठीक हैं। इस पर मैनें उन्हें समझाया कि सूचनाएं कैसे गलत हैं। जब वे नहीं माने तो मैंने सुनवाई करने से ही मना कर दिया। इस पर उन्होंने मेरे केस को ज्ञानेन्द्र शर्मा के यहां स्थानांतरित कर दिया। उन्होंने पांच सुनवाइयां करते हुए दंडात्मक कार्रवाई करने के नोटिस किए। सबसे पहले सुनवाई में उन्होंने मुझ से एक नया आवेदन जमा कराने को कहा। अगली सुनवाई पर उन्होंने मुझसे कहा कि आप इतनी पुरानी सूचनाएं क्यों मांग रहे हैं? मैंने उन्हें कारण बता दिया तो उन्होंने सात दिनों में सूचना देने का नोटिस जारी किया जिसमें यूपीएसआईडीसी ने धरा 5(३) का उपयोग नहीं किया और सभी 28 बिन्दुओं की सूचनाओं को अपने से सम्बंधित होने से इंकार कर दिया। फ़िर उन्होंने यूपीएसआईडीसी का पक्ष लेते हुए कहा कि ये सारी सूचनाएं न मांगे बल्कि कुछ बिन्दुओं पर ही सूचनाएं मांगे। फ़िर मैंने एक और आवेदन जमा किया। मगर उस आवेदन के जवाब में यह कहकर सूचना देने से इंकार कर दिया गया कि सूचनाएं 35 साल पुरानी हैं और उपलब्ध नहीं हैं। जब 21 जनवरी 2009 को सुनवाई हुई तो ज्ञानेन्द्र शर्मा ने कहा कि जो लिखकर दिया है, वही सही है। इस पर मेरे सब्र का बांध् टूट गया और मैंने उनके मुंह पर बोल दिया कि आप यूपीएसआईडीसी से मिल चुके हैं और इसी कारण इनका पक्ष ले रहे हैं। मेरे यह कहने पर उन्होंने जबरन मेरे केस का निस्तारित करने की धमकी दी। मैंने कहा कि आप ऑर्डर करें और इसमें लिखें कि आपने लालचवश मुझे सूचना दिलाने से इंकार कर दिया है। इस पर उन्होंने जबरन ऑर्डर पास कर दिया। उनके आदेशानुसार मुझे पार्कों की ट्रेसिंग और वर्ष 2009 का नक्शा प्रदान किया जाना था। मगर 26 जनवरी 2009 को मुझे जो नक्शा मिला उस पर तारीख नहीं लिखी थी। साथ ही पार्कों की ट्रेसिंग भी नहीं दी गई। अब मैंने अपने केस को खोलने के लिए शिकायत कर दी है। देखना है कि वे मुझे वर्ष 2009 की तारीख अंकित किया हुआ नक्शा और पार्कों की ट्रेसिंग दिलातें या नहीं।

क्या थी सूचनाएं
सन् 1969 में यूपीएसआईडीसी ने साहिबाबाद, गाजियाबाद के कड़कड़ मॉडल, साहिबाबाद, झंडापुर, महाराजपुर, प्रहलादगढ़ी और भौवापुर की 1445.17 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया था। मुआवजा मात्र 10.3 पैसे गज का दिया गया। पुनर्वास के तहत न तो किसानों को कोई सुविधा दी गई और न ही उन्हें अधिग्रहित जमीन पर बसाए गए औद्योगिक क्षेत्र-4 में नौकरियां मिलीं। इसके अलावा औद्योगिक क्षेत्र में 145 एकड़ जमीन के पार्क और 15.07 एकड़ जमीन अवस्थापना सुविधाओं हेतु छोड़ी गई थी।
वर्तमान में मौजूद छह पार्कों में से केवल एक पर ही पार्क है। बाकी की जमीन कहां गई, किसके कब्जे में है, यूपीएसआईडीसी ने किसे बेच दी कुछ पता नहीं है। अवस्थापना सुविधाओं हेतु छोड़ी गई 15.07 एकड़ जमीन में केवल 24 हजार वर्ग मीटर में 33 केवीए का एक बिजलीघर और दो हजार गज में एक थाना बना हुआ है और करीब एक हजार गज का प्लॉट डाक खाने के लिए छोड़ा गया है। बाकी की जमीन कहां गई कुछ पता नहीं है। यही नहीं 1445.17 एकड़ जमीन मे से 33 एकड़ जमीन वन क्षेत्र और पांच बीघा जमीन जोहड़ की भी अधिग्रहित की गई। मैंने समस्त पार्कों की ट्रेसिंग, सन् 1969 का मास्टर प्लान और 2009 का नक्शा सहित 28 बिन्दुओं पर जानकारी मांगी थी।

मुख्य सूचना आयुक्त की आंखों पर पट्टी
यूपीएसआईडीसी के अफसरों में मुझे लिखित में दिया है कि अवस्थापना सुविधाओं हेतु छोड़ी गई जमीन 30.12 एकड़ है जबकि नक्शे में यह जमीन मात्र 15.07 एकड़ दर्शायी गई है। जब मैने ज्ञानेन्द्र शर्मा से यह कहा कि जब मुझे 30 एकड़ से ज्यादा जमीन लिखित में दी गई है और जो नक्शा दिखाया जा रहा है उसमें 15.07 एकड़ जमीन है तो फ़िर कौन सी सूचना सही है? इस पर उन्होंने मेरी बात अनसुनी कर दी और अगले सवाल पर बहस करने लगे। इसके अलावा ज्ञानेन्द्र शर्मा एक सवाल के जवाब में यूपीएसआईडीसी ने अवस्थापना सुविधाओं हेतु छोड़ी गई जमीन को बेचे जाने का जवाब दिया। बावजूद इसके वह जमीन नक्शे में अभी भी खाली दिखाई गई है। इस तरह वे मुझे जो नक्शा दिला रहे थे, उस पर मैनें कहा कि जब इन्होंने मुझे यह लिखकर दिया है कि अवस्थापना सुविधाओं हेतु छोड़ी गई जमीन बेच दी गई है तो फ़िर यह सूचना गलत है या सही। इस पर पहले तो वह चुप्पी साध गए मगर अगले ही पल बोले कोर्ट से पूछो। मास्टर प्लान की बाबत वह कहने लगे कि तुम क्यों मांग रहे हो? जबकि मैं यह पहले ही स्पष्ट बता चुका था कि मैं क्यों मांग रहा हूं। गौरतलब है कि सूचना अधिकार कानून में यह जरूरी नहीं है कि सूचना मांगने का कारण बताया जाए। मेरे सवालों और साफ-साफ उनके यूपीएसआईडीसी से मिले होने की टिप्पणी के बाद वे बोले कि मुझ पर आरोप लगा रहे हो, मैं आपकी सुनवाई नहीं करूंगा।

सूचनाएं नहीं सिर्फ़ तारीख मिल रही है

सूचना मांगने वालों को तारीखों में इतना उलझा दो कि वो सूचना मांगने की जुर्रत न करें। इसी तर्ज पर उत्तर प्रदेश सूचना आयोग काम कर रहा है। ऐसे अनेक मामले हैं जिसकी 15 से 20 सुनवाईयां करने के बाद भी आयोग ने सूचनाएं नहीं दिलाईं हैं। चाहे वह डीएवी महाविद्यालय के रीडर देवदत्त शर्मा का मामला हो या लखनऊ निवासी अशोक कुमार गोयल का। देवदत्त शर्मा की आयोग में 16 सुनवाइयां लग चुकी हैं और अशोक कुमार गोयल 18 सुनवाइयों में आयोग में हाजिर हो चुके हैं लेकिन अब तक उन्हें मांगी गई सूचनाएं हासिल नहीं हुई हैं।
सूचना आयुक्त बुजुर्गों के फैसले शीघ्र निस्तारित करने के बजाय उन्हें भी लंबी तारीखें दे रहे हैं। दिल्ली की 70 वर्षीय आशा भटनागर के मामले की पहली सुनवाई 2 सितंबर 2007 को हुई थी। तब से सुनवाइयों को सिलसिला जारी है। आशा भटनागर इन सुनवाइयों से इतनी त्रस्त हो चुकी हैं कि उन्हें आयोग से सूचना मिलने की उम्मीद ही नहीं है और न ही वे अब सुनवाई में दिल्ली से लखनऊ जाना चाहती हैं। इसी तरह कानपुर निवासी संजीव दयाल ने 13 दिसंबर 2006 को स्थानीय अदालत की अपराध शाखा से जो सूचनाएं मांगी थी, वो आयोग में 26 सुनवाइयो के बाद भी नहीं मिली हैं।
बांदा के सुरेश कुमार गुप्ता की सूचना आयुक्त सुनील चौधरी के दरबार में 12 पेशियां हो चुकी हैं लेकिन वह सूचनाओं से अब भी महरूम हैं। बिजली विभाग ने उनके पास दो कनेक्शन के बिल और 30 हजार की आरसी भेज दी थी। इसी संबंध में उन्होंने सूचना मांगी थी। बांदा के ही चन्द्रपाल को बीडीओ से मांगी गई सूचनाएं 8 सुनवाई के बाद भी नहीं मिली हैं। उत्तर प्रदेश में ऐसे ढेरों उदाहरण हैं।
मामलों को इस तरह लटकाए रखने को जानकार इसे सूचना आयुक्तों की एक साजिश के रूप में देख रहे हैं। लोगों को कहना है सूचना आयुक्त ऐसा करके लोगों को उत्साह और सूचना के कानून से लोगों का भरोसा तोड़ना चाहते हैं। सूचना का अधिकार जागरूकता मंच के संजय गुप्ता कहते हैं कि सूचना आयुक्त के कारण यूपी में सूचना का अधिकार कानून पूरी तरह से कोलेप्स होता जा रहा है। सूचना आयुक्त अधिकारियों से मिले हैं, वे वादियों को डरा-धमका रहे हैं।

सूचना आयुक्तों पर लगे कुछ और आरोप

उत्तर प्रदेश के सूचना आयुक्तों पर लगाए जा रहे आरटीआई आवेदकों के आरोपों की कतार काफ़ी लंबी है। जैसे-
आरोप 1- सूचना आयुक्त बिना वादियों का पक्ष सुने जबरन मामलों को निस्तारित कर रहे हैं। राज्य के कार्यवाहक मुख्य सूचना आयुक्त ज्ञानेन्द्र शर्मा ने गाजियाबाद के कमल सिंह जाटव के साथ ऐसा ही किया। जितेन्द्र कुमार बनाम मेरठ कमिश्नर के मामले में आयोग ने केवल प्रतिवादी को बुलाकर पफैसला सुना दिया जबकि वादी बाहर ही खड़ा रहा।
आरोप 2- आयुक्तों की वादियों से कोई सहानुभूति नहीं है। वादी के उपस्थित न होने पर मामला निस्तारित कर दिया जाता है जबकि प्रतिवादी को मौके पर मौके दिए जा रहे हैं।
आरोप 3- आयुक्त दोषी लोक सूचना अधिकारियों पर जुर्माना नहीं लगा रहे और कानून के विपरीत कार्य कर रहे हैं।
आरोप 4- आवेदक सूचना आयुक्तों की नियुक्तियों को ही अवैध बता रहे हैं। चर्चा है सूचना आयुक्त 65 वर्ष की उम्र पार चुके हैं और गैर कानूनी रफप से कुर्सी पर विराजमान हैं। अपनी उम्र एवं शैक्षणिक प्रमाण पत्रों से जुडे़ दस्तावेजों को सार्वजनिक करने से कतरा रहे हैं।
आरोप 5- संस्था के लेटरहेड पर सूचना मांगने पर आवेदन निरस्त कर रहे हैं। रंजन कुमार की शिकायत संख्या 4269, मधुसूदन श्रीवास्तव की शिकायत 42700, अशोक कुमार सिंह की शिकायत एस 10-418(सी), मोज्जिमिल अंसारी की शिकायत संख्या एस 262(सी) एवं कुंवर मनोज सिंह की शिकायत संख्या एस 10-173 (सी) को इसी आधार पर निरस्त कर दिया गया।
आरोप 6- लोक सूचना अधिकारियों से रिश्वत लेकर उनके पक्ष उनके पक्ष में फैसले देना।
आरोप 7- राज्य में सूचना के कानून को निष्क्रिय करने में सबसे आगे।

राज्यपाल कार्यालय को सूचना आयुक्तों की मिलीं 67 शिकायतें

उत्तर प्रदेश में सूचना आयुक्तों के प्रति अंसतोष बढ़ता ही जा रहा है। इसका अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि राज्यपाल कार्यालय को सूचना आयुक्तों के खिलाफ सितंबर 2008 तक 67 शिकायतें मिल चुकी हैं, लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि राज्यपाल कार्यालय की तरफ से एक भी शिकायत पर कार्रवाई नहीं की गई। यह जानकारी खुद राज्यपाल कार्यालय के लोक सूचना अधिकारी ने एक आरटीआई आवेदन के जवाब में दी है। सूचना का अधिकार जागरूकता मंच के राम सरन शर्मा ने अक्टूबर 2008 में इस संबंध में राज्यपाल कार्यालय में आरटीआई आवेदन दाखिल किया था।
राम सरन शर्मा ने सूचना आयुक्तों की पृष्ठभूमि, उम्र, वेतनमान, नियुक्ति आदि के संबंध में भी जानकारी मांगी थी। लेकिन इन सूचनाओं को निजी बताते हुए आवेदक को देने से मना कर दिया गया। गौर करने की बात है आवेदक द्वारा मांगी गई सूचनाएं सूचना आयोग के प्रोएक्टिव डिस्क्लोजर के अन्तर्गत आती हैं और यह आयोग की वेबसाइट में स्वैच्छिक रूप से दी जानी चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं है। आवेदक ने सूचना आयुक्तों के खिलाफ की गई शिकायतों, उनकी प्रकृति और उन पर की गई कार्रवाई की जानकारी भी चाही थी, लेकिन आवेदनकर्ता को इन प्रश्नों के उत्तर नहीं मिले। आवेदक का कहना है कि ऐसा कैसे हो सकता है कि 67 शिकायतों में एक भी कार्रवाई के लिए उपयुक्त नहीं पाई गई? उनका कहना है कि यदि ऐसा है तो शिकायतकर्ताओं की जानकारी और शिकायत की प्रकृति की जानकारी क्यों नहीं दी गई?
सूचना के अधिकार कानून में प्रावधान है कि सूचना आयुक्तों की शिकायत मिलने पर राज्यपाल कानून की धारा 17(१) के तहत सुप्रीम कोर्ट से मामले की जांच की अनुशंसा कर सकता है। सुप्रीम कोर्ट से जांच की इजाजत मिलने पर राज्यपाल कानून की धरा 17(२) के तहत सूचना आयुक्त को सूचना आयोग के कार्यालय में आने से रोक सकता है। इसे सूचना के अधिकार कानून का दुर्भाग्य की कहा जाएगा कि सूचना आयुक्तों की इतनी शिकायतें मिलने के बाद भी राज्यपाल ने जनहित में भी अपनी शक्तियों का इस्तेमाल नहीं किया।

मंगलवार, 3 फ़रवरी 2009

क्या कहती है कानून की धारा 8 (१)(क)

एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में राष्ट्रीय सुरक्षा से सम्बंधित मामलों को किसी भी कानून के दायरे से बाहर रखना चाहिए जिसे इसके सार्वजनिक होने से खतरा हो।
वह सूचना जिसे सार्वजनिक किए जाने से देश की संप्रभुता और अखंडता को खतरा पहुंचता हो, उन्हें सूचना के अधिकार कानून के दायरे में होते हुए भी देने से मना किया जा सकता है। अधिनियम की धरा 8 की उप धारा (१)(क) में राज्य की सुरक्षा, रणनीति, वैज्ञानिक या आर्थिक हितों पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाली सूचनाओं को दिए जाने पर निषेध लगाया गया है। ऐसी सूचनाएं जिसके जारी किए जाने से विदेशों से संबंध में बुरा असर पड़ता हो या किसी आपराधिक प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलता हो, उन सूचनाओं को देने से लोक प्राधिकारी मना कर सकता है। यह ऐसी सूचना होती है जिसे दिए जाने से पूर्व व्यापक जनहित का ध्यान रखना पड़ता है।
तमिलनाडु के सी रमेश ने जब सूचना के अधिकार के तहत भूतपूर्व राष्ट्रपति के आर नारायणन और भूतपूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के बीच 28 फरवरी 2002 से 15 मार्च 2002 के बीच हुए पत्र व्यवहार की प्रतिलिपि मांगी तो सूचना यह कहकर देने से मना कर दी गई कि इसे सार्वजनिक किए जाने से देश की एकता और अखंडता को विपरीत असर पड़ सकता है। असल में यह वही समय था जब सारा गुजरात सांप्रदायिक हिंसा की आग में जल रहा था और रमेश यह जानना चाहते थे कि आखिर सरकार ने देश की जनता के हित में क्या कदम उठाए। चार आयुक्तों की फुल बेंच सुनवाई के दौरान यह निर्णय दिया गया कि ऐसी सूचना धरा 8(१)(क) के तहत सार्वजनिक किए जाने से मना की जा सकती है लेकिन चूंकि यह सूचना व्यापक जनहित से जुड़ी हुई है इसलिए यह सूचना सार्वजनिक की जाए।
ऐसी ही सूचना शैलेष गाँधी ने महाराष्ट्र के उद्योग विभाग से जब विवादास्पद डॉओ केमिकल्स एवं उद्योग सचिव के बीच हुए एमओयू की कॉपी मांगी तो उद्योग विभाग ने इसे देने से साफ इंकार कर दिया। विभाग का कहना था कि यह सूचना सार्वजनिक किए जाने से राष्ट्र हित को क्षति पहुंचती है। गौरतलब है डॉओ केमिकल्स का नाम भोपाल गैस त्रासदी के समय से ही विवादों में घिरा रहा है और एक विदेशी प्राईवेट कंपनी एवं राज्य सरकार के बीच हुए व्यावसायिक करार की सूचना सार्वजनिक किए जाने से किस प्रकार राष्ट्र क्षतिग्रस्त हो सकता है, यह एक विमर्श का विषय है।

जनता करे भ्रष्ट पुलिसकर्मी को गिरफ्तार

पुलिसकर्मी जनता के नौकर हैं, हमारे टैक्स से ही उनके वेतन, खर्चें, गाड़ियां, वर्दी, जूते मिलते हैं। पुलिस विभाग में बैठे लोग हमारी सेवा के लिए हैं, हम पर हुकूमत चलाने के लिए नहीं। यह बातें कोई सामाजिक कार्यकर्ता या समाज सुधरक नहीं बल्कि खुद उत्तर प्रदेश पुलिस के कांस्टेबल सुशील कौशिक कहते हैं। इतना ही नहीं वह भ्रष्ट पुलिसकर्मियों को जेल भिजवाने की मुहिम में भी सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं और ऐसे पुलिसकर्मियों को पकड़वाने पर ईनाम भी दे रहे हैं। वे इसके लिए सहारा ले रहे हैं सूचना के अधिकार का। सूचना के अधिकार के अपने अनुभवों को बता रहे हैं `अपना पन्ना´ को-
पुलिस में रहकर पुलिस के खिलाफ ही आरटीआई इस्तेमाल का विचार कहां से आया?
पुलिस का मतलब कानून व्यवस्था को बरकरार रखना और अपराधियों को जेल भेजना होता है। पुलिस में भर्ती होने के बाद मैनें देखा कि यहां उलट है। पुलिसकर्मी खुद भ्रष्टाचार में लिप्त थे। जनता का काम कम, अपना काम अधिक कर रहे थे। पुलिस वालों का मुख्य काम अधिक से अधिक पैसा कमाना था। पुलिसकर्मी खुद ही अपराधी थे। थाने में अपराधियों को पाकर इन्हें ठीक करना जरूरी समझा और आरटीआई का इस्तेमाल किया। घर में गंदगी रहते हुए बाहर सफाई नहीं की जा सकती।
क्या कभी विभाग के कोप का शिकार भी होना पड़ा?
आरटीआई लागू होने से पहले ही मैं भ्रष्ट पुलिसकर्मियों की शिकायत उच्च अधिकारियों से करता था। अधिकारियों की गड़बड़ियों की सूचना उनसे ऊपर के अधिकारियों को देता था। इससे मुझे उनके गुस्से का शिकार होना पड़ा क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि एक कांस्टेबल उच्च अधिकारियों से सवाल पूछे। मेरा तबादला कर दिया गया। नोएडा के एसएसपी ने डीआईजी से शिकायत की और जांच भी हुई।
कितना कारगर है आरटीआई? इसके इस्तेमाल से मिली सबसे बड़ी सफलता के बारे में बताएं।
ये वो सुदर्शन चक्र है जो जादू की तरह काम करता है। जो काम विभागों के अनेक चक्कर लगाने से नहीं होता वह एक अर्जी से हो जाता है। सबसे बड़ी सफलता 2005 में ग्राम पंचायत चुनाव के बाद इसके इस्तेमाल से मिली। चुनावों के दौरान बूथ में ड्यूटी करने वाले पुलिसकर्मियों के नाश्ते के लिए पैसा आया था लेकिन अधिकारी इसे हजम कर गए। यह जानकारी मिलने के बाद झांसी, बुलंदशहर, गौतमबुद्ध नगर और बागपत में इस संबंध में आरटीआई से जवाब तलब किया। इसका नतीजा यह निकला की पुलिसकर्मियों को रातोंरात पैसा बांटा गया और अधिकारी भी सतर्क हो गए।
कानून की राह में सबसे बड़ी बाधा कौन सी है?
सबसे बड़ी बाधा राज्य सूचना आयोग हैं। यदि आयोग दोषी अधिकारियों पर जुर्माना लगाएं तो यह बहुत कारगर साबित होगा। आयोग में सुधार की बहुत जरूरत है।
आगे की क्या योजनाएं हैं?
पुलिस सुधार के लिए काम करना है। मेरी कोशिश होगी कि जिस उद्देश्य के लिए पुलिस को बनाया गया है, पुलिस वही काम करे। अगर कोई पुलिसकर्मी संगीन अपराध करता है तो सीआरपीसी की धारा 43 के तहत जनता को उसे गिरफ्तार करने का अधिकार है। हम जनता को इस बारे में जागरूक कर रहे हैं।

प्रवेश परीक्षा के प्रश्न पत्र और उत्तर कुंजी दी जाए- केन्द्रीय सूचना आयोग

किसी भी पूर्व प्रवेश परीक्षा के प्रश्न पत्र और उत्तर कुंजी सूचना के अधिकार के तहत हासिल किए जा सकते हैं। केन्द्रीय सूचना आयोग ने यह महत्वपूर्ण निर्णय बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर मेडिकल प्रवेश परीक्षा 2008 के संबंध में दिया है। आवेदक मंगला राम जट को विश्वविद्यालय ने यह सूचना देने से मना कर दिया था और इसके पीछे तर्क दिया था कि इससे व्यापक जनहित नहीं साधता। विश्वविद्यालय ने सूचना न देने के लिए अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) द्वारा सूचना रोकने का भी हवाला दिया जिसमें एक आरटीआई आवेदक को ऐसी ही सूचना देने से मना कर दिया गया था। केन्द्रीय सूचना आयुक्त शैलेष गाँधी ने विश्वविद्यालय की इन दलीलों को सिरे से खारिज कर दिया और कहा कि कानून में इस तरह की सूचना न देने का कोई प्रावधान नहीं है।

मिट्टी के तेल आबंटन में घपला

कोणार्क के चन्द्रभागा में साल 2008 में माघ मेले के दौरान श्रधालुओं को आबंटित होने वाले केरोसिन तेल में लाखों का घपला हुआ है। श्रधालुओं को तेल देने का फैसला लंबे अरसे पहले उड़ीसा सरकार ने उस वक्त लिया था जब मेले में प्रकाश की व्यवस्था नहीं थी। लेकिन अब मेले में रोशनी की व्यवस्था हो जाने के बाद भी मिट्टी के तेल की आपूर्ति नहीं रोकी गई है। फर्क इतना है कि तेल श्रधालुओं तक नहीं पहुंच रहा।
गौरतलब है उडीसा का खाद्य आपूर्ति और उपभोक्ता कल्याण विभाग पुरी के सब कलेक्टर से माध्यम से मिट्टी को तेल आबंटित करता है। साल 2008 में लाखों रुपए का तेल रिटेलर को दिया गया और निर्देश दिया गया कि वे चन्द्रभागा के निकट अस्थायी उचित दर की दुकानें खोलें। रिटेलरों को कहा गया कि मेले में प्रत्येक व्यक्ति को 500 मिलीलीटर तेल दिया जाए और अकाउंट का पूरा हिसाब रखा जाए। लेकिन रिटेलरों ने अधिकारियों की मिलीभगत से मिट्टी के तेल मेले में आए श्रधालुओं को नहीं बांटा। यह जानकारी सूचना के अधिकार के तहत निकलवाए गए दस्तावेजों से मिली है। निकलवाए गए वितरण रजिस्टर में लाभार्थियों के फर्जी हस्ताक्षर और अंगूठे के निशान पाए गए हैं। बिक्री रजिस्टर में उन लोगों के नाम दर्ज हैं जिन्हें मिट्टी के तेल दिया ही नहीं गया।
स्थानीय निवासियों ने इस मामले की शिकायत अनेक अधिकारियों से की लेकिन उन पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। एक शिकायत के जवाब में राज्य सलाहकार राज किशोर मिश्रा ने अप्रैल 2008 को खाद्य आपूर्ति एवं उपभोक्ता कल्याण विभाग के सचिव डॉ. राजकुमार शर्मा को भी जांच एवं उचित कार्रवाई करने के निर्देश दिए, लेकिन उन्होंने अब तक कोई कार्रवाई नहीं की है। 16 नवंबर 2008 को भुवनेश्वर में जस्टिस डी पी वाधवा द्वारा की गई जन सुनवाई में भी यह तथ्य रखे गए। डॉ. राजकुमार शर्मा ने जन सुनवाई में 24 घंटे के भीतर कार्रवाई करने की बात कही थी। लेकिन 2 महीने गुजर जाने के बाद भी कोई कदम नहीं उठाया गया है। सामाजिक कार्यकर्ता रबिन्द्र नाथ नायक ने अब आरटीआई के तहत पूछा है कि डॉ. शर्मा चुप क्यों हैं?
वर्ष 2008 के माघ मेले में हुए मिट्टी के तेल का घपला सुलझा नहीं है कि 2 फरवरी से इस साल का माघ मेला लग रहा है। कार्यकर्ताओं को चिंता सता रही है कहीं इस साल भी पिछले साल का इतिहास न दोहराया जाए।

आईआरसीटीसी ने लौटाई बकाया राशि

इंडियन रेलवे केटरिंग एंड टूरिज्म कंपनी (आईआरसीटीसी) लिमिटेड ने दिल्ली के दया प्रकाश शुक्ला का टिकट रद्दीकरण का पैसा दो साल तक लटकाए रखा लेकिन उन्होंने जैसे ही सूचना के अधिकार के जरिए इसका कारण जानना चाहा, पैसा मिल गया। दया प्रकाश शुक्ला ने 7 जुलाई 2006 को टिकट बुक किया था और उसी दिन शाम को टिकट रद्द करवा दिया था। टिकट रद्द कराने के बाद वे इंतजार करते रहे कि आईआरसीटीसी उनका पैसा वापस लौटाएगा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। अन्तत: उन्होंने अपना पैसा वापस पाने के लिए 1 दिसंबर 2008 को सूचना के अधिकार का सहारा लिया। आरटीआई आवेदन ने असर दिखाया और आईआरसीटीसी हरकत में आया। इसका नतीजा यह निकला कि शीघ्र ही आवेदक को आईआरसीटीसी से बकाया राशि मिल गई।
आवेदक ने सवाल ही कुछ ऐसे पूछे थे जो अधिकारियों के लिए सिरदर्द बन गए। आवेदक ने टिकट वापसी के अपने आवेदन पर की गई कार्रवाई की दैनिक प्रगति रिपोर्ट के अलावा उन अधिकारियों के नाम आदि की जानकारी भी पूछी थी जो इस लापरवाही के प्रति उत्तरदायी थे। साथ ही यह जानकारी भी मांगी कि अपना काम ठीक से न करने पर इन अधिकारियों के खिलाफ क्या कार्रवाई की जाएगी? हालांकि आवेदन में पूछे गए अधिकांश सवालों के जवाब तो नहीं मिले, लेकिन आवेदक का पैसा वापस करके आईआरसीटीसी ने अपना पिंड छुड़ाने को कोशिश की। अपना काम हो जाने के बावजूद आवेदनकर्ता अब अपने सवालों के जवाब पाने के लिए आयोग में जाने की तैयारी कर रहे हैं।

ब्रिगेड अधिकारी कर सकेंगे निरीक्षण

पुणे नगर निगम के फायर ब्रिगेड अधिकारी स्वेच्छा से किसी भी संवेदनशील इमारत या भवन का निरीक्षण कर सकते हैं और अग्नि सुरक्षा के मानकों पर खरे न उतरने वाली इमारतों या भवनों के खिलाफ कार्रवाई भी कर सकते हैं। आरटीआई की बदौलत पुणे नगर निगम को यह स्पष्टीकरण करना पड़ा है। गौर करने की बात है कि महाराष्ट्र फायर प्रिवेंशन एंड लाइफ सेफ्टी मेजर्स एक्ट 2006 में ऐसा कोई प्रावधन नहीं था। लेकिन अब सूचना के अधिकार के एक आवेदन के दबाव में स्टेट अर्बन डेवलपमेंट विभाग ने इस कमी को दूर कर दिया है।
पुणे के विहार दुर्वे ने निगम से इस संबंध में सूचना के अधिकार के जरिए अनेक सवाल पूछे थे। मसलन, क्या फायर विभाग के अधिकारी स्वेच्छा से किसी निजी परिसर जैसे स्कूल, गोदाम, कॉलेज एवं मॉल आदि दुर्घटना संभावित जगहों का निरीक्षण करते हैं? विहार दुर्वे ने शहर के विभिन्न स्थानों जैसे इमारतों, स्कूलों, अस्पतालों, बस डिपो, मॉल्स, सिनेमा, गैस, पेट्रोल पंप, कैरोसिन डिपो आदि में फायर सुरक्षा के मानकों के जांच करने वाले अधिकारियों के नाम एवं पद आदि पूछे थे। दुर्वे का कहना है कि दिल्ली के उपहार सिनेमा जैसी घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो, इसके लिए फायर सेफ्टी नियमों को लागू किया जा रहा या नहीं, यही जानने के लिए उन्होंने यह जानकारी मांगी थी। विहार का कहना है कि पुणे फ़िल्म इंस्टीट्यूट ने निरीक्षण करने आए फायर ब्रिगेड के अधिकारियों को प्रवेश नहीं करने दिया था। आए दिन इस तरह की घटनाएं होती रहती थीं।
आवेदन मिलने के बाद सोया हुआ फायर ब्रिगेड विभाग हरकत में आया और उसे इस मामले मे स्पष्टीकरण देने के लिए मजबूर होना पड़ा। पुणे नगर निगम के असिसटेंट डिवीजनल फायर ऑफिसर प्रशांत रणपिसे को कहना पड़ा है कि विभाग स्वेच्छा से किसी भी आग संभावित स्थान का निरीक्षण कर सकता है। यदि स्थान को दुर्घटना संभावित पाया जाता है तो सम्बंधित विभाग को सूचित कर दोषियों के खिलाफ कार्रवाई की जा सकती है। प्रशांत रणपिसे का कहना है कि इससे पहले निरीक्षण के लिए जाने वाले फायर ब्रिगेड अधिकारी अनेक तरह के विरोध का सामना करते थे। प्राईवेट भवनों में निरीक्षण के लिए उन्हें अनुमति नहीं मिलती है और उनसे निरीक्षण की चिट्ठी मांगी जाती थी।

झूठा निकला वादा

सूचना का अधिकार फाइलों में दबे तथ्यों को सार्वजनिक करने के अलावा नेताओं द्वारा जनता को दिए जा रहे खोखले और लुभावने वायदों की पोल भी खोल रहा है। ऐसा ही एक वायदा 17 अक्टूबर 2006 कों तात्कालीन रसायन और उर्वरक मंत्री रामविलास पासवान ने एक भाषण में किया था। उन्होंने कहा था कि हर जिले में दवा बैंक बनाए जाएंगे। दिल्ली में दिए गए अपने भाषण में उन्होंने कहा था कि गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों को मुफ्त दवाएं उपलब्ध कराने के लिए देश भर में 600 दवा बैंक खोले जाएंगे और इसे मंजूरी के लिए जल्दी ही केन्द्रीय मंत्रिमंडल के सामने रखा जाएगा। लेकिन वास्तविकता के धरातल पर अब तक इसमें अमल नहीं किया गया है।
फरीदाबाद के रहने वाले जितेन्द्र कुमार ने 2006 में दिए गए इस आश्वासन पर कितना अमल किया गया है, यह जानने के लिए 8 जुलाई 2008 को सूचना के अधिकार का सहारा लिया। जितेन्द्र कुमार ने आवेदन के साथ भाषण वाले अखबार (18 अक्टूबर २००६) की कटिंग भी भेजी। आवेदनकर्ता ने पूछा कि फरीदाबाद और रोहतक जिले में यह दवा बैंक कहां स्थित हैं, हरियाणा के सभी जिलों में दवा बैंक बनाने, उन्हें चलाने में जितना खर्च आया है। आवेदन में यह भी पूछा गया कि इन दवा बैंकों में किन-किन बीमारियों की दवाएं उपलब्ध हैं। इसके अतिरिक्त आवेदक ने जेनेरिक दवाओं के संबंध में भी अनेक प्रकार की जानकारियां मांगी।
मंत्रालय के रसायन एवं पेट्रोरसायन विभाग ने 14 अगस्त 2008 को आवेदन का जवाब दिया जिसने खुद मंत्री के वायदों की झूठा साबित कर दिया। जवाब में कहा गया कि दवा बैंक बनाने का प्रावधान इस विभाग की राष्ट्रीय औषध नीति 2006 में दिया गया है। मंत्रिमंडल ने 11 जनवरी 2007 को संपन्न अपनी बैठक में इस नीति पर विचार किया। यह निर्णय लिया गया कि इस मामले पर पहले मंत्रियों के समूह द्वारा विचार किया जाए। इस मंत्रियों के समूह को अभी मंत्रिमंडल को अपनी सिफारिशें करनी हैं। इस नीति की घोषणा के बारे में कोई निश्चित समय सीमा नहीं बताई जा सकती। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो मंत्री ने दवा बैंक को शीघ्र स्थापित करने का जो वायदा 2006 में किया था, उसे कब तक लागू किया जाएगा, इसकी जानकारी 2008 में भी विभाग के पास नहीं है।

गंदे टैंकरों पर होगा जुर्माना

पुणे के आरटीआई कार्यकर्ता विहार दुर्वे ने स्थानीय निवासियों की दूषित पानी की अनेक शिकायतें मिलने के बाद आरटीआई के जरिए निगम से जवाब तलब किया। नतीजा, निगम के जल आपूर्ति विभाग ने आदेश दिया है कि पानी की आपूर्ति करने वाले टैंकरों के पानी की गुणवत्ता की पड़ताल होगी। साथ ही कहा गया कि विभाग की मोबाइल लेबोरेट्री वैन पानी की आपूर्ति होने वाले इलाकों में जाकर टैंकरों की जांच करेगी। निगम के अधिकारी प्रमोद निरभावने ने कहा है कि नागरिक निगम कार्यालय, पम्पिंग स्टेशन या वार्ड ऑफिस में आकर पानी की गुणवत्ता की जांच की मांग भी कर सकते हैं। यदि पानी के टैंकरों को रिसता या बिना ढक्कन का पाया गया तो उन पर पांच सौ रुपए का जुर्माना भी होगा। टैंकरों की हालत खराब होने पर उनका उनका टेंडर भी निरस्त कर दिया जाएगा।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व में दस में से एक बीमारी और 6 प्रतिशत मौतों के पीछे दूषित पानी है। भारत में यह स्थिति और भी भयावह है। यहां हर साल 1.03 करोड़ लोगों की मौत होती है जिसमें 7.8 प्रतिशत यानि 7 लाख 8 हजार लोगों की मौत की वजह दूषित पानी बताया गया है। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि दुनिया से 9.1 प्रतिशत बीमारियों को सुरक्षित पानी और सैनिटेशन से रोका जा सकता है। ऐसा करके भारत में 15 प्रतिशत बीमारियां रोकी जा सकती हैं। सूचना के बदौलत ही सही निगम ने इस मामले में एक सराहनीय कदम उठाया है।

पांच महीने बाद सूचना देने के लिए मांगे दस रुपए प्रति पेज

लुधियाना के जिला वन अधिकारी महावीर सिंह ने आरटीआई आवेदनकर्ता हितेन्द्र जैन को मॉल, विवाहघर और अन्य इमारतों के निर्माण के लिए काटे गए पेड़ों के संबंध में सूचना देने के लिए 5 महीने बाद जवाब दिया, जिसमें आवेदक से 10 रुपए प्रतिपेज के हिसाब पैसे जमा कराने को कहा गया। गौरतलब है कि पंजाब में सूचना देने के लिए 2 रुपए प्रतिपेज का शुल्क निर्धारित है। साथ ही 30 दिन की निर्धारित अवधि में सूचना उपलब्ध न कराने पर नि:शुल्क सूचना देने का प्रावधान है। लेकिन लगता है जिला वन अधिकारी कानून के प्रावधानों से अनभिज्ञ हैं।
गैर सरकारी संस्था रिसरजेंस इंडिया के सचिव हितेन्द्र जैन ने 15 जुलाई 2008 को दाखिल आवेदन में इमारतों के निर्माण के लिए काटे गए पेड़ों के बारे में वन अधिकारी कार्यालय से जवाब तलब किया था। 30 दिन की तय समय सीमा के भीतर हितेन्द्र जैन को कोई जवाब नहीं मिला लेकिन लगभग 5 महीने बाद 12 दिसंबर को विभाग की तरफ से एक पत्र प्राप्त हुआ जिसमें आवेदक को सूचना प्राप्त करने के लिए 10 रुपए प्रति पेज के हिसाब से शुल्क जमा कराने को जरूर कहा गया।

दी जाए विदेशों में प्राप्त उपहारों की जानकारी

केन्द्रीय सूचना आयुक्त अन्नपूर्णा दीक्षित ने एक आदेश में सरकार से वीआईपी द्वारा विदेशी यात्राओं में प्राप्त उपहारों को सार्वजनिक करने को कहा है। वीआईपी में राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, सुप्रीम एवं हाई कोर्ट के जज, तीनों सेनाओं के प्रमुख एवं अन्य सरकारी अधिकारी शामिल हैं। सीआईसी ने यह आदेश आरटीआई कार्यकर्ता सुभाष चन्द्र अग्रवाल की अपील की सुनवाई पर दिया।
सुभाष चन्द्र ने बीते अक्टूबर में केबिनेट सचिवालय से वर्ष 2004 से प्राप्त ऐसे उपहारों की जानकारी मांगी थी। साथ ही जानना चाहा था कि इन उपहारों को जमा किया गया या नहीं। सूचना आयुक्त ने 20 दिनों के भीतर केबिनेट सचिवालय के पीआईओ को आवेदक को मांगी गई सूचनाएं मुहैया कराने को कहा है।

आरटीआई कॉल सेटर को अवार्ड

बिहार के सूचना का अधिकार कॉल सेंटर `जानकारी´ को साल 2008-09 का राष्ट्रीय ई-गवेर्नेंस अवार्ड दिया जाएगा। सेंट्रल डिपार्टमेंट ऑफ एडमिनिस्ट्रेटिव रेफोर्म्स ने इस गोल्ड अवार्ड की घोषणा की है। फरवरी माह की 12 तारीख को गोवा में होने वाले ई गवेर्नेंस के राष्ट्रीय सम्मेलन में बिहार सरकार को यह अवार्ड दिया जाएगा। गौरतलब है कि बिहार में स्थापित यह देश का पहला आरटीआई कॉल सेंटर है जिसमें आरटीआई आवेदन मात्र एक फोन करके दाखिल किए जा सकते हैं। जानकारी कॉल सेंटर ने पिछले दो सालों में 22 हजार 6 सौ फोन कॉल्स रिसीव किए हैं जिसमें 7070 कॉल आवेदन बने। 3016 कॉल्स प्रथम अपील और 1400 कॉल्स सूचना आयोग में दूसरी अपील के लिए आए हैं।

हाईकोर्ट ने कहा सीआईसी करे दोबारा सुनवाई

जवाहर लाल नेहरू मेमोरियल फंड एक ट्रस्ट है और यह सूचना के अधिकार के दायरे में नहीं हैं। केन्द्रीय सूचना आयोग के इस आदेश पर दिल्ली हाईकोर्ट ने पुन: सुनवाई करने को कहा है। सीआईसी के इस आदेश को आवेदक बी आर मिन्हास ने हाईकोर्ट में चुनौती दी थी। हाईकोर्ट के जज एस रविन्द्र ने याचिका की सुनवाई के बाद मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्ला के इस फैसले का असंतोषजनक पाया और कहा कि सीआईसी की तीन आयुक्तों की बैंच इस मामले की फ़िर से सुनवाई करे।
आवेदक बी आर मिन्हास ने नवंबर 2006 को मानव संसाधन विकास मंत्रालय से जानकारी मांगी थी कि जवाहर लाल नेहरू मेमोरियल फंड को वर्षवार कितनी वित्तीय सहायता और किस उद्देश्य से दी गई है। जवाब न मिलने पर उन्होंने सीआईसी में अपील की, लेकिन सीआईसी ने जवाहरलाल नेहरू मेमोरियल फंड को आरटीआई के दायरे में नहीं माना और आवेदक की अपील निरस्त कर दी थी। इससे पहले ट्रस्ट ने वजाहत हबीबुल्ला से पूछा था कि क्या राष्ट्रीय नेताओं की याद में बने चेरिटेबल ट्रस्ट आरटीआई के दायरे में हैं?
जवाब में हबीबुल्ला ने कहा कि उन पर आरटीआई कानून लागू नहीं होता। शुरूआत में जब यह मामला सूचना आयुक्त ओ पी केजरीवाल के समक्ष आया तो उन्होंने सख्त रुख अपनाया और पीआईओ को सूचना न देने पर सम्मन भी जारी किया। लेकिन जब ट्रस्ट ने हबीबुल्ला का खत दिखाया तो ओ पी केजरीवाल और वजाहत हबीबुल्ला की डिवीजन बेंच गठित की गई। बेंच ने ट्रस्ट के पक्ष में अपना फैसला सुनाया।
आवेदक ने हाईकोर्ट ने दलील दी कि जब से ट्रस्ट को आर्थिक सहायता मिल रही है तब से वह सरकारी संपत्ति तीन मूर्ति भवन से संचालित है, इसलिए वह आरटीआई के दायरे से कैसे बाहर हो सकता है। हाईकोर्ट ने इन दलीलों को सुनने के बाद सीआईसी को पुन: मामले की सुनवाई करने को कहा है।

लैप्स हुई ५ करोड़ ९१ लाख पॉलिसी

जीवन बीमा निगम (एलआईसी) से प्राप्त सूचना के अनुसार पिछले सात सालों (2000-01 से 2006-०७) में 5 करोड़ 91 लाख 96 हजार 235 पॉलिसी प्रीमियम जमा न करने के कारण लैप्स हुई हैं।
यह सूचना एलआईसी ने इंडिया टुडे को एक आवेदन के जवाब में दी है। हालांकि निगम ने यह बताने से मना कर दिया कि इन पॉलिसी के लैप्स होने से उसे कितना पैसा मिला। यह भी नहीं बताया गया कि इन पॉलिसीज के लैप्स की अवधि तक कितना प्रीमियम दिया गया।
एलआईसी के लोक सूचना अधिकारी थंकम टी मैथ्यू ने कहा कि सूचना जिस फारमेट में मांगी गई है, उसमें उपलब्ध नहीं है। अपीलीय अधिकारी और बाद में सूचना आयुक्त ए एन तिवारी ने इसी आधार पर अपील निरस्त कर दी।

सोमवार, 2 फ़रवरी 2009

बीपीएल कार्ड धारक से मांगा शुल्क

सूचना के अधिकार कानून में बीपीएल कार्ड धारक को आवेदन शुल्क जमा करने की छूट है। लेकिन हावड़ा के डिवीजनल रेलवे मैनेजर कानून के इस प्रावधन से अनभिज्ञ हैं। उन्होंने बीपीएल कार्ड धारक नटराज कुमार से सूचना देने के एवज में शुल्क की मांग की है।
नटराज कुमार ने 24 दिसंबर 2008 को रामपुर हाल्ट रेलवे स्टेशन में गड़बड़ियों के संबंध् में डिवीजनल रेलवे मैनेजर से जानकारियां मांगी थीं। आवेदन के साथ उन्होंने बीपीएल राशन कार्ड की प्रमाणित छायाप्रति भी संलग्न की थी। सूचना मिलने के स्थान पर 19 जनवरी 2009 को उन्हें सम्बंधित विभाग से एक पत्र मिला जिसमें कहा गया कि आवेदक ने शुल्क जमा नहीं किया है इसलिए सूचना हासिल करने के लिए वह 10 रुपए का शुल्क जमा करे। नटराज कुमार अब केन्द्रीय सूचना आयोग में विभाग की शिकायत करने की तैयारी में हैं।

मध्य प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड पर 25 हजार का जुर्माना

आरटीआई आवेदनकर्ता को सूचना न देने पर मध्य प्रदेश राज्य सूचना आयोग ने राज्य के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के लोक सूचना अधिकारी पर 25 हजार का जुर्माना लगाया है। जुर्माने के अलावा आवेदक को एक हजार पांच सौ रुपए हर्जाने के रूप में भी देने के आदेश आयोग ने दिए हैं।
बोर्ड ने आवेदक अजय शंकर दूबे को 5 सितंबर 2006 को दिए गए आरटीआई आवेदन में मांगी गई सूचनाएं नहीं दी थीं। आवेदनकर्ता ने बोर्ड के आर्डर के संबंध में आवेदन दाखिल किया था। उस समय बोर्ड के तात्कालीन चेयरमेन पी एस दूबे ने एक ऑर्डर के जरिए 400 उद्योगों को हेजारडस वेस्ट (मैनेजमेंट एंड हैंडलिंग) नियम 1989 के तहत मंजूरी दी थी। आवेदक के अनुसार चेयरमेन ने अपने पद का दुरूपयोग करते हुए वातावरण को प्रदूषित करने वाली इन कंपनियों को हरी झंडी दी। अजय शंकर दूबे ने मामले की तह तक जाने के लिए आरटीआई का सहारा लिया था, लेकिन बोर्ड ने आवेदक को इस संबंध में सूचना नहीं दी थी।

सूचना देने में देरी करने पर दो अधिकारियों पर दंड

कर्नाटक सूचना आयुक्त के ए थिप्पेस्वामी ने मंगलौर सिटी कारपोरेशन के कार्यपालक अभियंता जी वी राजशेखर और मुख्य लेखा अधिकारी जगदीश को सूचना देने में देरी करने पर पांच-पांच हजार का जुर्माना लगाया है। उन्होंने आवेदक प्रकाश भट को समय पर सूचना नहीं दी थी। आवेदक ने 5 दिसंबर को शंकरनगर रोड़ पर डले पाइपलाइन और निर्मल नगर योजना के तहत हुए काम की जानकारी मांगी थी। साथ ही कुलूर रोड़ पर हुए काम उसके टेंडर के दस्तावेजों की जानकारी भी चाही थी।
सूचना आयुक्त ने सुनवाई के वक्त इस मामले में जुर्माना लगाना जरूरी समझा और निगमायुक्त समीर शुक्ला को निर्देश दिया कि जुर्माने की राशि जनवरी और फरवरी महीने के वेतन से वसूल लिए जाएं।

मिलने लगा रुका पेंशन

सूचना के अधिकार की बदौलत पटना के राजेन्द्र प्रसाद ने अपना रुका हुआ पेंशन प्राप्त करने में सफलता पाई है। उनका पेंशन पंजाब नेशनल बैंक की पुनपुन शाखा से पेंशन था लेकिन बैंक एवं भविष्य निधि संगठन के अधिकारियों की लापरवाही के कारण पेंशन मिलना बंद हो गया। पेंशन पुन: प्राप्त करने के लिए भविष्य निधि कार्यालय का एक साल तक चक्कर लगाने के बाद भी उन्हें पेंशन नहीं मिला। इस संबंध में राजेन्द्र प्रसाद ने क्षेत्रीय पटना के भविष्य निधि आयुक्त को आवेदन भी लिखा लेकिन वह भी बेअसर साबित हुआ।
अतत: सूचना के अधिकार का इस्तेमाल किया तो ने केवल उनका पेंशन मिलना शुरू हो गया बल्कि अधिकारियों ने अपनी गलती के लिए उनसे माफी भी मांगी। दरअसल, राजेन्द्र प्रसाद ने सूचना के अधिकार के अन्तर्गत भविष्य निधि आयुक्त को भेजे गए आवेदन पर हुई कार्रवाई का विवरण मांगा था। भविष्य निधि कार्यालय आवेदन प्राप्त होने के बाद हरकत में आया और उसके बाद राजेन्द्र प्रसाद को रुका हुआ पेंशन दोबारा मिलने लगा।

रामजस कॉलेज के पीआईओ पर 25 हजार का जुर्माना

केन्द्रीय सूचना आयोग ने दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज के लोक सूचना अधिकारी सुधांशू पर 25 हजार का जुर्माना लगाया है। अधिकारी ने लॉ फेकल्टी के छात्र सर्वेश को मांगी गई सूचनाएं नहीं दी थीं।
सर्वेश ने 1 नवंबर 2006 को दिल्ली विश्वविद्यालय के लोक सूचना अधिकारी को चार आवेदन दिए थे। आवेदन कॉलेज के लोक सूचना अधिकारी को भेज दिए गए लेकिन अधिकारी ने सूचनाएं नहीं दीं।
सर्वेश ने 2005-06 में दाखिलों में हुई गड़बड़ियों की जांच के लिए जस्टिस एस एन अग्रवाल द्वारा की गई जांच रिपोर्ट और उसके आधार पर की गई कार्यवाई की जानकारी मांगी थी। कॉलेज ने इस जांच रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया गया था। इसके अलावा कॉलेज में हो रहे निर्माण और प्रशासनिक अधिकारी की नियुक्ति के संबंध में भी जानकारी चाही थी। साथ ही समस्त दस्तावेजों का निरीक्षण भी करना चाहा था।
सूचना न मिलने पर आवेदक ने 21 मार्च 2007 को आयोग में शिकायत की। आयोग के आदेश और कारण बताओ का भी कॉलेज पर कोई असर नहीं हुआ। अन्तत: आयोग ने पाया कि अधिकारी ने जानबूझकर सूचना नहीं दी हैं और इसके लिए जुर्माना आवश्यक है। आयोग ने कहा कि चार आवेदनों के लिए अधिकारी पर 1 लाख का जुर्माना बैठता है लेकिन कानून को शुरूआती दौर में होने के कारण केवल 25 हजार का जुर्माना लगाया जाता है। आयोग ने कॉलेज के प्रिंसिपल को दो किस्तों में जुर्माना वसूलने के निदेश दिए। साथ ही कहा कि पहली किस्त 10 फरवरी और दूसरी किस्त 10 मार्च तक आयोग में पहुंच जाए।

कटघरे में महाराष्ट्र के मुख्य सूचना आयुक्त की कार्यप्रणाली

महाराष्ट्र के मुख्य सूचना आयुक्त सुरेश जोशी पर आरटीआई कार्यकर्ता लंबे समय से कानून के अनुरूप कार्य न करने के आरोप लगाते आए हैं। लेकिन अब नागपुर बेंच के सूचना आयुक्त ने विलास पाटिल ने भी सुरेश जोशी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। विलास पाटिल ने उनकी कार्यप्रणाली पर अनेक सवाल उठाए हैं। पाटिल ने जोशी के खिलाफ गवर्नर और उच्च न्यायालय तक जाने की बात भी कही है।
दोनों आयुक्तों के बीच मतभेद का मूल कारण सुरेश जोशी का तानाशाह रवैया और वह आर्डर है जिसमें उन्होंने कहा था कि वे सूचना आयुक्तों की वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट लिखेंगे। सुरेश जोशी को लिखे पत्र में पाटिल ने कहा कि वे अपने सूचना आयुक्तों के साथ अधीनस्थों की तरह बर्ताव कर रहे हैं जबकि कानून में उनका मुख्य सूचना आयुक्त के समान ही दर्जा है। उनका कहना है कि राज्य सूचना आयोग को पारदर्शिता के संबंध में उनके अनेक सुझावों के बावजूद अमल नहीं किया गया। विलास पाटिल ने अपने कार्यालय में पर्याप्त स्टॉफ उपलब्ध न कराने और उनके आदेशों को वेबसाइट पर अपलोड न करने के आरोप भी मुख्य सूचना आयुक्त कार्यालय पर लगाए हैं।
आरटीआई कार्यकर्ता विजय कुंभर ने सूचना के अधिकार के जरिए दोनों आयुक्तों के बीच हुए पत्र व्यवहार को हासिल किया है, जो दोनों के बीच के मतभेदों को साफ उजागर करते हैं। विजय कुंभर का कहना है कि मुख्य सूचना आयुक्त अन्य आयुक्तों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं कर रहे और इस समस्या के लिए वह स्वयं ही जिम्मेदार हैं।

शैलेष गाँधी ने एक महीने में 500 मामले निपटाए

सूचना आयोग के पद पर नियुक्त होने के बाद शैलेष गाँधी ने केन्द्रीय सूचना आयोग में लंबित मामलों को सबसे बड़ी चुनौती बताया था और उसे कम करने को अपनी पहली प्राथमिकता। शैलेष गाँधी इस चुनौती पर कितने खरे उतरे हैं यह दिसंबर महीने में उनके द्वारा निपटाए गए 508 मामलों को देखकर पता चलता है। अक्टूबर-नंवबर माह में गाँधी ने 333 अपील और शिकायतों का निपटारा किया था।
नियुक्ति के वक्त शैलेष गाँधी पर 1650 लंबित अपील और शिकायतों का भार था। यह भी गौर करने की बात है कि शैलेष गाँधी के पर्याप्त स्टॉफ भी नहीं था। उन्होंने अपने कार्यालय में चार लोगों की नियुक्ति की और उन्हें वेतन भी स्वयं ही दिया। शुरूआत में वे स्वयं दिए गए आदेशों को टाइप करते थे। दिल्ली सरकार, दिल्ली नगर निगम, मानव संसाधन विकास मंत्रालय सहित उन्हें 11 विभाग और मंत्रालय मिले थे। इन तमाम दिक्कतों के बावजूद शैलेष गाँधी ने तेजी से काम किया उनके पास पडे़ लंबित मामलों की संख्या काफी कम कर दी।
शैलेश गाँधी की कार्यप्रणाली अन्य सूचना आयुक्तों के लिए एक मिसाल है जो अक्सर लंबित मामलों का रोना रोते रहते हैं और अपील और शिकायतों का शीघ्रता से निपटारे के लिए कोई कदम नहीं उठाते। महाराष्ट्र राज्य सूचना आयोग में इस वक्त 15 हजार 2 सौ लंबित मामले हैं और सूचना आयुक्त महीने में औसतन 100 से 150 मामलों का ही निपटारा करते हैं। गाँधी ने अपना अगला लक्ष्य अप्रैल तक 90 दिनों से कम लंबित रहने का रखा है।

गलत जवाब पर 22 पुलिस अधिकारियों को सम्मन

सूचना के अधिकार की ताकत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि एक आरटीआई अर्जी की बदौलत दिल्ली पुलिस के 22 अधिकारियों को सम्मन जारी हो गया और इनमें से अधिकांश 15 जनवरी को केन्द्रीय सूचना आयुक्त के सम्मुख व्यक्तिगत रूप से उपस्थित भी हुए जबकि कुछ अधिकारियों ने अपने प्रतिनिधि आयोग में भेजे।
दिल्ली के सत्य निकेतन निवासी अजीतकर की अपील की सुनवाई पर मुख्य केन्द्रीय सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्ला ने ज्वाइंट कमिश्नर, एडिशनल कमिश्नर और डिप्टी कमिश्नर को आयोग में उपस्थित होने का आदेश दिया था। आवेदनकर्ता ने विभिन्न विषयों पर दिल्ली पुलिस के सात ज्वाइंट कमिश्नर से सूचना मांगी थी। आवेदक के अनुसार पुलिस ने अधिकांश सवालों के अधूरे, भ्रामक और ग़लत जवाब दिए, जिसके विरुद्ध उन्होंने सीआईसी में अपील की थी। आयोग ने कहा है कि यह मामला काफी लंबे समय से आयोग में है और इसे शीघ्र की निस्तारित कर दिया जाएगा।

बीएसएनएल उपभोक्ताओं को मिलेगी रेंट में छूट

पुणे में भारत संचार निगम लिमिटेड (बीएसएनएल) के लैंडलाइन फोन उपभोक्ता जिनका फोन अप्रैल 2007 से जुलाई 2008 के बीच 15 या अधिक दिनों तक डैड या खराब रहा है, वे रेंट में छूट के हकदार हैं। बीएसएनएल के प्रशासनिक विभाग ने वित्त विभाग को इस संबंध में लिखा है। सजग नागरिक मंच के अध्यक्ष विवेक वेलांकर के आरटीआई आवेदन से यह संभव हुआ है। उन्होंने आरटीआई के जरिए बीएसएनएल से इस बाबत सूचना मांगी थी। ज्ञात हुआ कि इस अवधि में 24 हजार 430 उपभोक्ताओं के फोन डैड या खराब रहे लेकिन बीएसएनएल ने केवल 1720 लोगों को ही रेंट में छूट दी, जबकि अन्य सभी उपभोक्ता भी इसके हकदार थे।
वेलांकर ने सितंबर में बीएसएनएल को लिखा था कि सभी उपभोक्ताओं को छूट दी जाए। उनके पत्र पर जब कोई कार्रवाई नहीं की गई तो उन्होंने आरटीआई का सहारा लिया और अपने पत्र पर की गई कार्रवाई की जानकारी मांगी। जवाब में बीएसएनएल ने कहा कि रेंट में छूट उन सभी उपभोक्ताओं को दी जाएगी जिनके फोन 15 दिनों से अधिक अप्रैल 2007 से जुलाई 2008 के बीच खराब या डैड रहे हैं। यह काम बीएसएनएल को स्वैच्छा से करना चाहिए था लेकिन उसने आरटीआई आवेदन मिलने के बाद यह घोषणा की।