मंगलवार, 6 जनवरी 2009

पेंशन के लिए दर-दर भटकने को मजबूर स्वतंत्रता सैनानी

जिन स्वतंत्रता सैनानियों ने आजादी की लड़ाई में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया और अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया, उनके लिए न तो राज्य सरकार गंभीर है और न ही केन्द्र। सरकार के इसी सौतेले बर्ताव के कारण 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में हिस्सा लेने वाले शारदानंद सिन्हा पिछले 18 वर्षों से स्वतंत्रता सैनानी पेंशन के लिए दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं। राज्य के गृहमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक गुहार लगा चुके हैं लेकिन किसी ने उनकी तरफ ध्यान तक नहीं दिया। 21 अप्रैल 2008 को खत के माध्यम से अपनी व्यथा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को बताई लेकिन मुख्यमंत्री के यहां से भी निराशा ही हाथ लगी।
शारदानंद सिन्हा ने 28 सितंबर 1991 में स्वतंत्रता सैनानी पेंशन के लिए पटना स्थित स्वतंत्रता सैनानी निदेशक के यहां आवेदन दिया था। आवेदन के साथ उन्होंने 1951 में शाहबाद (वर्तमान भोजपुर) के जिलाधिकारी द्वारा जारी किया गया स्वतंत्रता सैनानी का प्रमाण पत्र भी संलग्न किया था। स्वतंत्रता सैनानी के सम्पूर्ण साक्ष्य होने के बावजूद उनके आवेदन पर विचार नहीं किया गया। न तो उन्हें पेंशन दी गई और न ही किसी अन्य प्रकार की सुविधा। सूचना के अधिकार का इस्तेमाल कर इसकी वजह जाननी चाही लेकिन वह भी बेअसर साबित हुआ। आरटीआई आवेदन पत्र प्राप्ति की रसीद तो उनके पास आती रही लेकिन संतोषजनक जवाब कहीं से नहीं मिले। राज्य सूचना आयोग ने भी बिना विचार किए उनकी याचिका खारिज कर दी। राज्य सरकार ने आवेदन के एक जवाब में कहा कि 31 मार्च 1982 के बाद के आवेदन पर विचार नहीं किया जा सकता जबकि केन्द्र सरकार वर्ष 1996 तक के आवेदन पर पर विचार करने की बात कहती है।
शुरूआत में शारदानंद सिन्हा ने पेंशन के लिए आवेदन इसलिए नहीं किया क्योंकि वे उस वक्त आत्मनिर्भर थे बोकारो इस्पात फैक्ट्री में नौकरी करते थे। (उस समय झारखंड राज्य नहीं बना था और बोकारो बिहार के अन्तर्गत आता था) इस कारण सरकार से सहायता लेना ठीक नहीं समझा। रिटायरमेंट के बाद जब बुढ़ापे ने दस्तक दी और उनका शरीर जवाब देने लगा तो उन्हें सरकार से पेंशन लेने की जरूरत महसूस हुई लेकिन सरकार के कानों में जूं तक नहीं रेंगी। राज्य, केन्द्र और सूचना आयोग में बैठे भ्रष्ट अधिकारियों ने उनके मंसूबों को कामयाब नहीं होने दिया।
शारदानंद ने जिन ब्रिटिश शासकों के जुल्मों के आगे घुटने नहीं टेके वही अब भ्रष्ट अधिकारियों के सामने लाचार नजर आ रहे हैं। पेंशन के पैसों से अधिक उन्हें उस सम्मान की दरकार है जिसके वे हकदार हैं।

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